रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग आधुनिक कृषि का एक अभिन्न अंग बन गया है। किसान इसके उपयोग का इस हद तक आदी हो गए हैं कि किसानों के लिए रासायनिक खाद और कीटनाशकों के उपयोग के बिना खेती करना असंभव हो गया है। प्रकृति को प्यार करने वाले और कृषि विशेषज्ञों की मानें तो ये तरीके न केवल हवा, पानी और मिट्टी के लिए हानिकारक हैं, बल्कि कृषि आर्थिक संकट में इन रासायनिक उर्वरकों का भी बड़ा योगदान है। अगर हम सत्तर के दशक के बाद की कृषि को छोड़ दें तो सदियों से चली आ रही खेती का प्राचीन तरीका इस बात का प्रमाण है कि तब उर्वरकों के बिना भी खेती संभव थी। गांव में रहने वाले एक बुजुर्ग किसान अंगरेज सिंह के मुताबिक विकल्प हमारे किसानों के पास ही है। अंगरेज सिंह बिना रासायनिक खाद के खेती करते हैं और उनकी उपज रासायनिक खेती के समान ही होती है। रासायनिक उर्वरकों के बजाय, अंगरेज सिंह गंडोया खाद (केंचुआ खाद) का उपयोग करते हैं, जिसे वर्मी कम्पोस्ट भी कहा जाता है।
अंगरेज सिंह बताते हैं, “रसायनों के माध्यम से उत्पादन करने की एक सीमा है, लेकिन प्रकृति के अनुकूल खेती की कोई सीमा नहीं है क्योंकि रासायनिक उर्वरकों का आविष्कार मनुष्य ने किया है, जबकि फसलें प्रकृति की देन हैं। जरूरत है प्रकृति को समझने की। मैं खेत में ही शैड के नीचे गोबर से वर्मी कम्पोस्ट खाद तैयार करता हूं, शुरुआत में किसानों को यह ज्यादा पसंद नहीं आया लेकिन पिछले कुछ वर्षों में स्थिति बदलने लगी है। अब मैं जरूरत से कई गुना ज्यादा वर्मी कम्पोस्ट पैदा करता हूं, फिर भी मांग पूरी नहीं होती।
“इस वर्मी कम्पोस्ट में किसी भी फसल के लिए आवश्यक सभी तत्व होते हैं। इसमें किसी तरह के रासायनिक खाद या कीटनाशक की जरूरत नहीं होती है। इसलिए मुझे उर्वरकों और कीटनाशकों पर खर्च नहीं करना पड़ता है और उत्पादन अन्य किसानों के समान ही होता है। प्रत्येक किसान के पास अपने पशुओं का गोबर भी होता है और गंडोआ को केवल एक बार खरीद कर उसमें छोड़ना पड़ता है। अगला कार्य गंडोया (केंचुआ) द्वारा किया जाता है। यह गोबर को उपजाऊ खाद में बदल देता है और अपनी आबादी भी बढ़ाता है। किसान को केवल इस बात का ध्यान रखना है कि उसमें रहने के लिए पर्याप्त नमी हो।”
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